नवरत्न सागर सूरीश्वर जी महाराजा
धन्य हे माता मणिप्रभा श्री जी म.सा. जिन्होने स्वमोह त्याग कर एक रत्नवत् तेजस्वी पुत्र को शासन को भेंट दी व स्वयं का भी आत्म कल्याण किया। ज्ञानी क्रियापर: शान्तो, भवितात्मा जितेन्द्रिय: पू. महोपाध्याय म. ने ज्ञानसार में सदगुरु के जो लक्षण कहे वो पू. साहेबजी में अक्षरश: नजर आते थे। प्रवर - पुण्य दाधी -गाँव गाँव में विचरते दोनो गुरु भाई, अनेक शासन प्रभावना के कार्य करते तथा संघो के परस्पर वैमनस्य को दुर कर एकता स्थापित करते थे। वि.सं. 2025 में अहमदाबाद चातुर्मास के बादनगर के सर्व जिनालयों की चेत्य परिपाटी निकाली, तब उस्मानपुरा में पू. उप. दर्शन सागरजी म.सा. से प्ररेणा मिली - अभ्युदय सागरजी, नवरत्नसागरजी तुम्हारी पुण्यवाणी है, गुजरात में एक सुंदर आगममंदिर का निर्माण हो।पू. अभ्युदय सागरजी म. ने उनके आदेश को मानकर शंखेश्वर महातीर्थ का स्थान तय किया। योग्य भूमि प्राप्त हो गई।और दोनो भाईयो ने संकल्प लिया कि, आगम मंदिर निर्माण के आर्थिक हेतु से किसी के घर पगलियाँ नही करना व प्रवचन में प्रेरणा नही देना। तथापि शंखेश्वर दादा व गुरु कृपा से कार्य निर्विघ्न बढ़ता रहा। दोनो गुरु भाई में बेपनाह प्रेम था, इसलिए राम - लक्ष्मण की जोड़ी के नाम से मशहूर थे। एक बार शेषकाल में शंखेश्वर तीर्थ में स्थिर थे। एक रात्री को साहेबजी को स्वप्न आया कि सूंड हिलाते हुए एक हाथी ने नमस्कार किया। प्रात: वेला में उन्होने ये स्वप्न अपने बड़े गुरु भाई को बताया। पू. अभ्युदय सागर म. ने कहा ये शुभ स्वप्न है तेरे पास स्वयं चलकर एक शिष्य आयेगा। साहेबजी ने भी संकल्प लिया कि यदि शंखेश्वर दादा के मस्तक से फुल भगवान की हथेली पर सीधा गिरिगा तो ये स्वप्न अवश्य फलित होगा। संकल्प पूर्ण हो गया। फुल हथेली पर सीधा गिरा और कुछ दिन पश्चात् देपालपुर से सागरमलजी व कंचनलाल मंडोवरा आए तथा साहेबजी को विनंति की - हमारे छोटे भाई को आपका शिष्य बनना है। उन दिव्यात्मा का नाम है पू. आचार्य अपूर्वमंगलरत्नसागर सूरीश्वरजी म.सा.। इस प्रकार साहेबजी को देवीय संकेत मिलते थे यह उनकी तप-जप साधना का ही प्रभाव था। उपकात्तिं काउपकार स्मरण - साधना का सागर - सही मायनो में तो युं लगता है जैसे सारे गुण समुदाय ने साहेब को ही वर लिया हो। संदेश भाई के शब्दों में - गौतमपुरा में एक पंडितजी रहते है, जो हस्तरेखा के ज्ञान के लिए मशहुर है। उनकी भविष्यवाणी भी सटीक ही होती है। एक बार आचार्य श्री गौतमपुरा पधारे, तो मैं उन पंड़ितजी को उनके पास लाया और साहेबजी से हाथ दिखाने हेतु अनुरोध करने लगा। अति मिन्नत करने पर साहेबजी ने हाथ आगे किया। हाथ पर नजर पड़ते ही पंडितजी भी पीछे हट गए और कहने लगे - संदेश भैया में इंसानो के हाथ देखता हूँ भगवान के हाथ नही। फिर बार बार साहेबजी से माफी मांगने लगे। सागर समुदाय में प्रवर पुण्य राशी धारक थे साहेबजी। अनुपम दया, निस्वार्थ वृत्ति, सर्वहितकर्ता जैसे प्रकृष्ट गुणो की गंगोत्री बह रही थी। जो भी समीप आता, अवश्य उसका तन - मन निर्मल हो जाता। सर्व जीवो के प्रति निरंतर वात्सल्य धारा प्रवाहित होती थी, इसी वजह से उनके संपर्क में आने वाले हर प्राणी पर प्रभाव पड़ता था। इंदौर नवकार परिवार के मुख्य एक ने एक प्रसंग पर प्रकाश डाला। वो साहेबजी के साथ विहार में थे, यकायक साहेबजी की दृष्टि सड़क किनारे रहे हुए सर्प पर पड़ी। वाहनो का आवगमन भरपूर था , किसी भी गाड़ी के नीचे कुचले जाने की पूरी संभावना थी, सभी चिंता में आ गए कि अब क्या करे? परंतु शांतमुख मुद्रा वाले साहेबजी आहिस्ता आहिस्ता सर्प के पास गए। नवकार श्रवण करवाया तथा समझाया की यहाँ बैठने से आपकी जान को खतरा है इसलिए आप थोड़ा अंदर जाकर बैठ जाइए| सुनने वाले सभी हतप्रभ थे कि तिर्यंच मानव की भाषा कैसे समझेगा? और आगे का दृश्य देख सभी अवाक् रह गए। साहेबजी के समझाने के कुछ मिनीट बाद वो सर्प जंगल की तरफ चलने लगा। सर्व जीवों के प्रति अथक मैत्री भाव व प्रेम भाव रखने का ही ये परिणाम था कि तिर्यच को भी साहेबजी के भावो का स्पर्श हो जाता। पंचसूत्र में एक विशेषण आता है साधु के लिए “परोवयार निरआ” पू. साहेब जी भी पर की पीड़ा वेदना को दुख दूर करने हेतु यथाशक्य प्रयत्न करते थे। चैन्नई - अंतिम - चातुर्मास - एक भाई आए साहेब वासक्षेप कर दो, बायपास कराने जाना है, साहेबजी ने स्थिर दृष्टि से भाई को देखा और बोले ऑपरेशन कल करवाना, भाई बोले किंतु साहेबजी तारीख, हॉस्पिटल, डॉक्टर विगेरे सब सुनिश्चित हो चुके है। कोई बात नही सब कैंसल कर दो, कल वासक्षेप करवाकर ऑपरेशन करवाने जाना। ठीक है साहेबजी ! अगले दिन भाई साहेबजी के पास आए, साहेबजी ने 30 मिनिट तक वासक्षेप किया। भाई हॉस्पिटल गए, एडमिट हुए। डॉक्टर ने चेकअप किया, और रिपोंट निकाली, सब कुछ नार्मल था। डॉक्टर ने कहाँ कि आपको ऑपरेशन की कोई जरुरत नही है, आप घर जा सकते हो। इस प्रकार सैकड़ो भक्तो के, जो भी शरण में आते है उनके दुख दर्दों को दुर कर देते थे। एक वाक्य में कहे तो गुणो के सागर थे, जैसे सागर की बुंदो को गिनना अशक्य है, वैसे ही गुरुदेव के गुण- वैभव को शब्दो में बांधना असंभव है तथापि गुरुदेव के गुरु गुणो से सभी आत्माए इस पुस्तक के माध्यम से होकर, भूरि-भूरि अनुमोदना कर पवित्र पुण्य का भाता बांधे, जिससे भवोभव में जिनशासन की प्राप्ति सुलभ बने।
सहकार से सहकार की निष्पत्ति होती है, बबुल से बबुल की।
आत्मरुचि संपन्न माता का पुत्र भी बेशक आत्मभिमुखी ही होगा। माता के तप - त्याग - वैयावच्च- कट्टर चारित्र पालन आदि सर्वगुणो के उत्तराधिकारी साहेबजी बन गए।
स्वयं तीर्णो भवाम्भोधे, परांस्तारयितु क्षम:॥
मात्र 2 वर्ष के अल्पपर्याय मे गुरु का साया मस्तक से उठ गया, तब प.पू. अभ्युद्य सागरजी म.सा. उनके जीवन के योग - क्षेमकारी बने।
पू. साहेबजी कृतज्ञता गुण से भरपूर थे। यावज्जीव उन्हो ने पू. गुरुदेव, पू. गुरुआ्राता व पू. माताजी म. की तिथि पर उपकृति स्मृति में उपवास अथवा आयंबिल करते थे, स्वास्थ्य नरम हो, विहार अधिक हो, तप का पारणा हो, कैसी भी परिस्थिति हो, ये नियम अखंड रुप से किया
पू. गुरुदेव की अंतिम अवस्था में उनके समक्ष ही साहेबजी ने 08 अट्ठम का संकल्प किया। वो पूर्ण करने के बाद भी वे थमे नही , उन्होने करीबन 300 अट्टम किये। दीक्षा लेकर वर्धमान तप का
पाया डाला। एक बार 08 ओली पूर्ण करने के पश्चात् पुन: पाया डाला तथा 96 ओली में कालधर्म को प्राप्त हुए।
साहेबजी अक्सर कहते थे - शरीर किराये का मकान है, एक दिन तो छोड़ना ही है, अत: अधिक सार संभाल नही करना चाहिए। बस जरुरत के अनुसार ही किराया देना चाहिए।
उनकी देहासक्ति शून्यवत् थी। आयंबिल से बेहद प्रेम था। 08 ओली के पारणे बाद पुन: आयंबिल शुरु करने पर किसी ने कहा - थोड़े दिन वापरकर शरीर का ध्यान दीजिए। साहेबजी ने कहा -भाई
आयंबिल तो मित्र का घर है मुझे इस घर में रहना पसंद है। ( विगई) शत्रु के घर जाने से मुझे भय लगता है। कालधर्म के समय भी पिछले 4 वर्षों से सतत आयंबिल ही चल रहे थे। यदि कभी विगई वापरते तो
दो दिन सतत् नहीं वापरते अर्थात् उपवास - एकासना - उपवास करते थे। ये नियम करीबन 25 वर्ष से अनवरत चल रहा था।
देह दुक्खं महाफलं” ये पंक्ति साहेबजी के रोम रोम मे बसी थी जपयोग उनके जीवन मे पुष्प की सुवास के समान बसा हुआ था। जपमाला तो सदा हाथ में ही रहती थी। अद्भुत अप्रमत्ता थी यु लगता था जैसे चौथे आरे का साधु भूल से यहाँ 5 वे आरे में आ गया हो।
कुमारपाल महाराजा के पुण्य से उन्हे एक ऋतु में 6 ऋतुओं के पुष्प प्राप्त हो गए। वैसे ही हम भरतवासीयों का भी पुण्य का उदय है की एक ही सूरी भगवंत में अनेक गुणो के दर्शन होते है । निःस्वार्थ, निष्कपट वृत्ति से की गई साधना ने उन्हे सिद्धी के सोपान तक पहुँचा दिया था, तथापि साहेबजी को उन सिद्धियों के प्रति कोई उत्साह नही। उदासीनता के भाव पूर्वक आत्म विलीन थे।
विहार के दौरान गौतमपुरा जाना हुआ। वहाँ संदेश भाई बंदन करने आए और बातो ही बातों मे साहेबजी की बात निकल गई। मालवा के कण कण में साहेबजी ही समाए हुए है अंत: बातचीत मे उनका
शुमार होना कोई आश्चर्य नही है।
यही अभ्यर्थना
नवरत्न सागर सूरीश्वर जी महाराजा
आदर्शरत्न सागर जी महाराज
अल्पेश भाई से... वैष्णव जन तो तेने कहिए जे, पिड़ पराई जान रे । हजारो लाखो जैन संतो की भूमि याने गुजरात, इस गुजरात में अनेक प्रांत जिसमें भाषा, रिति रिवाज अलग अलग है। उनमें एक काठियावाड प्रांत भी अपनी अलग पहचान बनाया हुआ है जिसमें नेमिनाथ प्रभु की पावन भुमि गिरनार भी शामिल है। ऐसे काठियावाड के अमरोली जिलें में स्थित एक परिवार था जो काफी वर्षो से अहमदाबाद बस गया | घर के मुखिया का नाम हरिभाई पटेल उनकी धर्मपत्नि कांताबेन पटेल | हरिभाई पटेल जो गुजरात इलेक्ट्रीकल बोर्ड में नौकरी करते,वह भी संपूर्ण निष्ठा के साथ। ईमानदारी उनके रोम रोम में बसी थी। जीवन का लक्ष्य यही कि अनिति का धन कभी नही कमाना। कांताबेन जो प्रभु की भक्ति करने वाली, दयालु, दूसरो की पीड़ा को देख उसे यथाशक्ति दुर करने का प्रयत्न करने वाली तथा सरल स्वभावी, धार्मिक गुणो से युक्त अपना जीवन यापन करती। ऐसी माता जो प्रात: काल से ही जय श्री कृष्ण ! जय श्री कृष्ण ! से घर का वातावरण पवित्र करती। ऐसे मंगल वातावरण में उन्होने तीन पुत्र तथा एक पुत्री को जन्म दिया। सुपुत्रो का नाम अल्पेश, आशीष तथा संजय रखा गया और सुपुत्री का नाम रंजन रखा गया चारो ही बच्चो पर माता के द्वारा वैष्णव धर्म के गहरे संस्कार दिए गए जिससे सभी अपना जीवनहर्ष और उमंग के साथ बिताते। महापुरुषो ने कहा भी है कि - कांताबेन के तीन पुत्रो में से बड़ा पुत्र जिसका नाम अल्पेश भाई था वह अपने पूर्वभव के संस्कारो के कारण कुछ धर्म में विशेष बुद्धिवाला था। उसे बचपन से ही प्रभु की भक्ति करना, दुसरो की मदद करना तथा वैष्णव होने से अनेक हिंदु तीर्थ के दर्शन करने जाता। वहाँ मिले साधु संतो को देख सत्संग भी कभी करता और मन प्रसन्न हो जाता। जब अल्पेश कुमार 9
आदर्श की और...
पर दु:खे उपकार करे रे, मन अभिमान न आने रे ॥
“सुखं धर्मात् दु:खं पापात्”
अर्थात् धर्म से सुख और पाप से दु:खो की प्राप्ति होती है।
वर्ष के हुए तब एक बार मेहनत से 400 रुपए जमा किए। अब हुआ युं के एक सब्जी बेचने वाली बहन के 400 रुपए कुछ कारण से गुम गए, जिससे उसे बहुत दु;:ख हुआ और वह रोने लगी। यह देख अल्पेश भाई ने अपने माँ से पुछा कि यह बहन क्यों रो रही है तब माँ ने कहा उसके 00 रुपए गुम हो गए है इसलिए वह बेचारी रो रही है। अल्पेश कुमार ने तुरंत अपनी -2 महिने से संभाल कर रखी हुई 400 रुपए की नोट उस सब्जी वाली बहन को दे दी। सोचिए के आज से करीब 25 -30 वर्ष पहले 400 की नोट की कीमत क्या थी यह सभी समझ सकते है। आज भी जो भाव जैन धर्म प्राप्त करके भी हमें नही आते वह भाव अल्पेश कुमार को उम्र के 9 वर्ष में आए। ऐसा क्यों ? तो जवाब सरल है पूर्वभव के और इस भव के संस्कार जो दानदेने के थे, छोड़ने के थे इसलिए छूटा अन्यथा नही छोड़ सकते | सोचने जैसी बात है किआप आपके बच्चो को छोड़ने के अर्थात् त्याग के संस्कार दे रहे हो या पकड़ने के अर्थात् भोगने के संस्कार दे रहे हो यह चिंता का विषय है। इधर अल्पेश कुमार बाल्यावस्था पूर्ण कर युवावस्था में आ चुके है और जो सभी सामाजिक व्यवस्था के
८८ नुसार बड़े होने पर धर्नाजन में जुट जाते है ठीक उसी प्रकार अल्पेश भाई हीरे के कारखाने में नौकरी करने लगे। अर मन ज्यादा समय तक नौकरी में टीक न सका। कुछ समय बाद वे नौकरी छोड़ व्यवसाय करने लगे। उन्हे यह लगा कि मुझे व्यवसाय में अधिक मुनाफा आ रहा है और यह खतरे की घंटी है इसे छोड़ना चाहिए यह भाव स्वयं की प्रेरणा से मन मे आया। पुन: देखिए ऐसे विचार क्या आपका धंधा बहुत अच्छा चल रहा हो तो कमी आपको ऐसा लगा? नही लगा ना! जैन होकर भी नही लगा और यहाँ तो अजैन होकर भी अल्पेश भाई अपनी पूर्वभव की आराधना के बल से आत्मजागृति की ओर बढ़ रहे है और एक दिन अचानक ऐसा मन मे विचार करने लगे कि अब तक मैने बहुत सुख भोग लिया अब मुझे दुःख भोगना है तो चलो कुछ ऐसा करे कि मुझे समझ में आ जाए कि दुःख क्या होता है। और जेब में 400 रुपए और 4 बिस्किट के पैकेट लेकर चल दिए साइकिल पर।| साईकिल चलाते चलाते थक जाते तो मंदिरो में, धर्मशालाओ में, बस स्टेण्ड पर सो जाते और विश्राम के बाद पुनः निकल पड़ते साइकिलयात्रा करते हुए। ऐसे करते हुए वह माउंट आबू, अंबाजी आदि सभी हिंदू तीर्थ पर जाने लगे और दु:ख की बजाय तो यहां उल्टा ही हुआ; ऐसा जीवन में पहला अनुभव होने से मन में आनंद ही आनंद उभर रहा था और जब यात्रा पूर्णाहूति की ओर आई तो पुन: अहमदाबाद की ओरनिकल पड़े छ्ज ' उनके जीवन का सबसे उसके उत्कृष्ममय चल रहा था। इधर प.पू. मालव भूषण आचार्य भगवंत नवरत्नसागर सूरिजी म.सा. भी विहार करते हुए अहमदाबाद की ओर जा रहे थे रे रास्ते में गुरुदेव श्री जी को समय क्या हुआ ऐसा प्रश्न उस समय के मुनि श्री विश्वरत्नसागरजी म.सा. को पूछा। 7 मुनि
श्री विश्वरत्नसागरजी म.सा. ने इधर उधर देखा तो उन्हे रास्ते पर साइकिल पर चल रहे अल्पेश भाई दिखे | उन्होने अल्पेशभाई को रोका और समय पूछा, अल्पेश भाई ने समय बताकर वहां से चल दिए। आगे गुरुदेव श्री नवरत्नसागर सुरीश्वरजीम.सा. अपनी साधना याने माला से जाप करते देख अल्पेश भाई को उनसे बात करने की जबरदस्त इच्छा हुई पर मन में सोचा के गुरुदेव तो जाप कर रहे है मैं बात करुगा तो शायद न बोले और यह सोच आगे बढ़ गए। लेकिन जब जीव के भाग्य का सितारा जब चमकने वाला होता है तो कुछ न कुछ ऐसी घटना बनती है वह जीव एक साधारण से असाधारण बन जाता है| ठीक ऐसा ही अल्पेश भाई के साथ हुआ। अल्पेश भाई उस दिन मे हसाणा बस स्टेण्डपर ही सो गए और योग संयोग से जो रोज जल्दी उठ जाते है पर आज वह उजाला हो ने के बादउठे। चल ही रहा था और पुन: गुरुदेव श्री रास्ते में मिल गए चूंकि अन्य महात्मा के हाथ में माला न दिखने से उन्होने सोचा चलो इनही महात्मा से कुछ चर्चा कर ले। और वह वर्तमान के प.पू. युवा हृदय सम्राट आ. भ. श्री विश्वरत्नसागर सुरीश्वरजी म. साहेबजी को पता चला के यह जीव एक उत्तम लक्षणो वाला है तो उन्होने तुरंत गुरुदेव के साथ चलने को कहा और वहां से प्रथम बार अल्पेश भाई का गुरुदेव के साथ सत्संग हुआ। गुरुदेव ने वे अहमदाबाद किस स्थान पर रुकेंगे इसका पता बताकर वहां मिलने को कहा। अल्पेश भाई भी कुछ दिनो के बाद गुरुदेव को मिलने गए और गुरुदेव ने उन्हे 44 पूर्वो का सार, मंत्रो में सर्वोत्कृष्ट, ऐसा नवकार कै
7. और उसी दिन से अल्पेश भाई नवकार मझामंत्र के ध्यान में लीन हो गए। कुछ दिन बाद जब वे गुरुदेव से मिलने पालीताणा गए तब गुरुदेव ने नवकार महामंत्र का अर्थसमझाया।
धीरे धीरे अल्पेश भाई गुरुदेव के साथ रहने लगे। और कारण मात्र यही था कि जब भी गुरुदेव आराधना करने बैठते तो वो भी उनके साथ घंटो बैठकर आनंद की अनुभूति कर लेते। अब गुरुदेव के आर्शीवाद से उन्होने झाबुआ में उन्होने अपने जीवन का पहला वर्षीतप आरंभ कर दिया और पारणे में भी प्राय: एकासना ही करते। गुरुदेव की उच्च कोटि की आराधना उनके जीवन को ऐसा परिवर्तित कर दिया के एक बार जब पुन: वर्षीतप के दौरान पालीताणा गए और शंत्रुजय गिरिराज की यात्रा की तब उन्हे भयंकर शारीरिक पीड़ा होने लगी और अब अपना अंतिम समय आ गया है उन्हे ऐसा लगा। और मन ही मन मे धार लिया कि यदि सही सलामत तलेटी पहुँच जाँउ तो गुरुदेव के पास जाकर दीक्षा ग्रहण करने की बात बोलुंगा। जिस स्थान में अनंत-अनंत आत्माँए मोक्ष गई है ऐसी पावन पवित्र भूमि के पुण्य प्रताप से और उनके सुयोग से उन्होने वैशाख सुदी 40 याने महावीर प्रभु केवलज्ञान कल्याणक के दिन भगवती प्रवज्या दीक्षा भक्तामर तीर्थ धार में ग्रहण करी और गुरुदेव ने उनका नाम अल्पेश भाई से प.पू. मुनि श्री आदर्शरत्नसागरजी म.सा. रख दिया। पूज्यश्री को ज्येष्ठ सुदी 3, गुरुवार 6 जून 209 को मंदसौर नगर मे हर्षोल्लास के साथ गणिवर्य पद पर शोभायमान किया गया।जिन श्री आदर्शरत्नसागरजी म. साहेबजी को आज आप सभी अच्छी तरह से जानते हो। और गुरुदेव श्री रे सूरीश्वरजी महाराजा के बाद आप सभी की आस्था एवं अपार श्रद्धा के केन्द्र बन चुके है ऐसे आध्यात्म 4 महापुरुष के दीक्षा पूर्व जीवन को अति संक्षिप्त में हमने देखा। आज हमें इनको देखकर यही महसूस होता है कि भले ही गुरुदेव आज हमारे साथ नही है पर कही न कही प.पू. श्री आदर्शरत्नसागरजी म.सा. उनकी इस कमी को हमेशा दूर करते है। अध्यात्मयोगी पूज्यश्री याने मुनि जीवन के 27 गुणों को सार्थकता प्रदान करते हुए सर्वोत्तम चारित्र जीवन, मात्र 3-4 घंटे की अल्प निद्रा, प्रतिदिन 6-7 घंटे जाप, उत्कृष्ठ संयम पालन, ठाम चौविहार (एक समय पर -एक स्थान पर बैठकर गोचरी पानी वापरना) आदि नियमों का कठोरता से पालन
करते है।